फ़िल्म समीक्षा: बवाल
1 min readएक फिल्म में हम क्या खोजते हैं? मसाला, ड्रामा, इमोशंस, फन, एक अच्छी कहानी, जो दर्शकों को बांधे रखे, और शायद थोड़ा सा कुछ नया…
आपके इसी कॉकटेल को ध्यान में रखकर ‘दंगल’ और ‘छिछोरे’ जैसी बेहतरीन फिल्में बना चुके निर्देशक नितेश तिवारी और ‘बरेली की बर्फी’ से फ़िल्मफेयर अवार्ड जीत चुकी अश्विन अय्यर तिवारी लेकर आये हैं फ़िल्म ‘बवाल’ जो इस शुक्रवार अमेजन प्राइम (ओटीटी) पर रिलीज़ हुई है।
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बवाल की कहानी
लखनऊ में हाईस्कूल के टीचर अज्जू भैया उर्फ अजय दीक्षित (वरुण धवन) और उनकी पत्नी निशा दीक्षित (जाह्नवी कपूर) की है। अज्जू दिखावटी जिंदगी जीता है, अज्जू अपनी छवि को चमकाने के लिए आसपास के लोगों से बहुत सारे झूठ बोलता रहा है। अज्जू और निशा का पारिवारिक जीवन सुखी नहीं है जिसकी वजह है निशा को मिर्गी के दौरे पड़ना। कहानी एक नया मोड़ तब लेती है जब एक दिन स्कूल में विधायक (मुकेश तिवारी) के बेटे को थप्पड़ मारने की वजह से अज्जू को सस्पेंड कर दिया जाता है। चूंकि अज्जू इतिहास का टीचर है इसलिए वह अपनी इमेज बचाने के लिए यूरोप जाकर दूसरे विश्व युद्ध को पढ़ाने का कॉन्सेप्ट देता है। वह पत्नी निशा के साथ द्वितीय विश्वयुद्ध के घटनास्थल पेरिस, नारमैंडी, एम्सटर्डम, बर्लिन, आशिवत्ज जाता है। इन घटनास्थलों पर जाकर वह बच्चों को उसके बारे में बताता है। इस यात्रा से क्या जीवन के कुछ सबक सीख पाएगा? क्या वह अपनी नौकरी बचा पाएगा? यही फ़िल्म का सार है।
बवाल की समीक्षा
एक तरफ अजय और निशा की जिंदगी है। दूसरी ओर द्वितीय विश्व युद्ध के सबक। इन दोनों को स्क्रीनप्ले में मिलाकर बिना किसी भाषणबाजी के जीवन का अर्थ समझाने की बेहतरीन कोशिश है फ़िल्म ‘बवाल’। निखिल मल्होत्रा, श्रेयस जैन, पीयूष गुप्ता और नितेश तिवारी द्वारा लिखित संवाद और स्क्रीनप्ले में द्वितीय विश्वयुद्ध की घटनाओं को आज की युवा पीढ़ी के प्रतिनिधि के तौर पर अज्जू और निशा के साथ जिस प्रकार से जोड़ा है, वह वाकई काबिले तारीफ है। संवाद बहुत प्रभावी हैं। अभिनय भी शानदार है।
इन घटनाओं के साथ जीवन का सबक देने का प्रयोग शानदार है। शुरुआत में फिल्म कहीं-कहीं थोड़ा धीमी गति से चलती है, लेकिन इंटरवल के बाद कहानी तेजी से रफ्तार पकड़ती है। इस दौरान एक दृश्य में द्वितीय विश्व युद्ध के पीड़ित अपनी आपबीती सुना रहे होते हैं। निशा अज्जू को उसका हिंदी में अनुवाद करके बताती है। उसे करते हुए जहां उसकी आंखों में आंसू आ जाते हैं, वहीं दर्शक भी भावुक हो जाते हैं। इसी तरह पोलैंड में बनाया गया आशिवत्ज शिविर जहां द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान युद्धबंदियों को गैस चैंबर में डालकर मौत के घाट उतारा जाता था। वह सीन हृदय विदारक है। इसके अलावा और भी कई सीन है जो दिल को छू जाते हैं। साथ ही जीवन के महत्वपूर्ण सबक सिखाते हैं।
अभिनय एवं अन्य तकनीकी पक्ष
अपनी छवि के प्रति बेहद सजग रहने से लेकर केयरिंग पति की भूमिका में आने तक, अज्जू की भूमिका में वरुण धवन का काम प्रशंसनीय है। उन्होंने अज्जू के दोहरे जीवन जीने के चरित्र को बहुत सधे अंदाज में दर्शाया है। लीड एक्टर होने के वाबजूद अपनी हीरोइन के साथ सीन में वरुण बेहतरीन अंडरप्ले करते हैं। ऐसा वह ‘बद्रीनाथ की दुल्हनियां’ में भी कर चुके हैं। इसलिए वरुण की कास्टिंग परफेक्ट रही। सिर्फ टीचर के रूप में एक-दो सीन में वरुण प्रभावित नहीं कर पाते। बाकी पूरी फ़िल्म में उन्होंने बेहतरीन अभिनय किया है।
निशा की भूमिका में जाह्नवी कपूर प्रभावित करती हैं। वह पढ़ी-लिखी और आत्मनिर्भर हैं। अज्जू के साथ सामान्य संबंध न होने पर भी वह हिम्मत नहीं हारती है। जाह्नवी की आवाज उनके किरदार को प्रभावी बनाने में मददगार साबित होती है। अज्जू के पिता की भूमिका में मनोज पाहवा बेहतरीन लगे। अज्जू के दोस्त की भूमिका में प्रतीक पचौरी ने बेहतरीन काम किया है। उसका यह कहना, ‘भैया आपसे बहुत कुछ सीखना बाकी है’ शानदार है। यह सुनकर आप मुस्कुराए बिना नहीं रह पाते। बाकी सहयोगी भूमिकाओं में आए कलाकार मुकेश तिवारी, अंजुम सक्सेना, शशि वर्मा का काम सराहनीय है। कल्पेश के छोटे लेकिन प्रभावशाली रोल में हेमंग व्यास ने कमाल कर दिया है। फिल्म का गीत संगीत भी कहानी के अनुरूप है।
निर्देशन की बात करें, तो फिल्म का फर्स्ट हाफ मजेदार और हल्की-फुल्की कॉमेडी के साथ बनाया गया है। फ़िल्म थोड़ी धीमी लगती है लेकिन इंटरवल के बाद कहानी अपने असली उद्देश्य पर आती है और मजेदार बनती है। इंटरवल के बाद निर्देशक नितेश तिवारी फिल्म को एक अलग ट्रीटमेंट देते हैं जो फ़िल्म का सबसे मजबूत पक्ष है।
देखें या न देखें
यदि आपकी इतिहास में रुचि है तो देखें। यदि आप रिश्तों को महत्व देते हैं तो देखें। यदि आप सिनेप्रेमी हैं तो अवश्य देखें। कुल मिलाकर एक बार देखनी चाहिए। रेटिंग- 3.5/5 ~गोविन्द परिहार (23.07.23)