13/04/2025

फ़िल्म समीक्षा: द डिप्लोमैट

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जॉन अब्राहम की फिल्मोग्राफी में दो तरह की फ़िल्में हैं- पहली जिनमें वे सिर्फ अभिनय करते हैं जैसे धूम, देसी बॉयज, ढिशूम, फोर्स आदि ये फ़िल्में मनोरंजन के हिसाब से ठीक ठाक हैं लेकिन इन्हें न भी देखो तो कुछ मिस नहीं होगा! दूसरी फ़िल्में वे जिनमें जॉन निर्माता भी होते हैं- जैसे मद्रास कैफ़े, परमाणु, बाटला हाउस। जिन्हें आप मिस नहीं कर सकते! इसी तरह की फ़िल्म है द डिप्लोमैट।

द डिप्लोमैट की कहानी

भारतीय महिला उज्मा अहमद (सादिया ख़तीब) को पाकिस्तान में धोखे से शादी करके बंदी बना लिया गया था। यौन हिंसा की शिकार उज्मा को तत्कालीन विदेश मंत्री सुषमा स्वराज और डिप्टी हाई कमिश्नर जेपी सिंह के अथक प्रयासों से इंडिया वापिस लाया गया। फिल्म की शुरुआत होती है मलेशिया में रहने वाली उज़्मा अहमद से। वह अपनी बच्ची के इलाज के लिए परेशान है। तभी उसकी मुलाकात होती है पाकिस्तानी ताहिर (जगजीत संधू) से। ताहिर उज्मा को प्यार और बच्ची के इलाज का वास्ता देकर पाकिस्तान बुलाता है। पाकिस्तान के खैबर इलाके में पहुंचते ही सादिया को अंदाजा हो जाता है कि उसे फंसाया गया है। वहां उसके जैसी और भी कई महिलाएं बंदी हैं और शारीरिक और सेक्सुअल प्रताड़ना से गुजर रही हैं। वहां युवा लड़कों को खतरनाक अस्त्र-शस्त्र चलाए की ट्रेनिंग दी जा रही है। उज्मा किसी तरह जुगत लड़ाकर इंडियन ऐंबेसी पहुंचती है और फिर डिप्टी है कमिश्नर जीपी जेपी सिंह (जॉन अब्राहम) से मदद की गुहार लगती है। मगर पाकिस्तानी ताहिर की निकाही बीवी उज्मा को इंडिया वापिस लाना इतना भी आसान नहीं है। रोमांचक कूटनीतिक स्थिति के बीच जेपी सिंह अपनी टीम और विदेश मंत्री सुषमा स्वराज सुषमा स्वराज (रेवती) के सहयोग से दुष्कर हालातों के बावजूद उज्मा की भारत वापसी कैसे करता है, इसे जानने के लिए आपको फिल्म देखनी होगी।

द डिप्लोमैट की समीक्षा

नाम शबाना जैसी फिल्म और स्पेशल ऑप्स जैसी वेब सीरीज के निर्देशक रह चुके शिवम नायर ने सच्ची घटना को फिल्म में तब्दील करते हुए कहीं भी ओवर द टॉप नहीं बनने दिया। जॉन अब्राहम जैसे एक्शन स्टार की मौजूदगी में ऐसे होने के संभावना बहुत ही प्रबल थी, मगर शिवम ने किरदारों को रियलिस्टिक ढंग से पेश किया है। फ़िल्म की स्क्रिप्ट अच्छी है, थ्रिल बना रहता है। कई संवाद अच्छे हैं जो सीन को दमदार बनाते हैं। थ्रिलर फिल्मों के मास्टर निर्देशक नीरज पांडे के सहायक रहे शिवम नायर की ये सबसे बेहतर फ़िल्म मानी जा सकती है। क्लाइमेक्स में देशभक्ति की भावना भी जाग्रत होती है जो रोमांच पैदा करती है। फ़िल्म में फ़ालतू की हीरो गिरी नहीं दिखाई गई है। उज़मा अहमद का किरदार सादिया ख़तीब ने अच्छा निभाया है जो इससे पहले ‘रक्षा बन्धन’ फ़िल्म में अक्षय कुमार की बहन बनी थीं। जेपी सिंह का किरदार जॉन अब्राहम ने बेहतरीन ढंग से निभाया है। अपनी मार-धाड़ वाली इमेज के विपरीत जॉन यहां एक सच्चे किरदार को अपने संतुलित और सेंस ह्यूमर के साथ ईमानदारी से पेश करते हैं। वे ‘ये पाकिस्तान है, बेटा, यहां आदमी और घोड़ा सीढ़ी चाल नहीं चल सकता’ जैसी डायलॉगबाजी में अव्वल रहे हैं। कुमुद मिश्रा ने पाकिस्तान के एक वकील का किरदार निभाया है जो उज़मा के लिए केस लड़ता है। तत्कालीन भारतीय विदेश मंत्री सुषमा स्वराज का किरदार रेवती ने निभाया है। शारिब हाशमी तिवारी की छोटी-सी भूमिका में याद रह जाते हैं।

देखें या न देखें

बॉक्स ऑफिस रिपोर्ट पर न जाएं, अच्छी फ़िल्म है जब भी अवसर मिले, ज़रूर देखें। ⭐⭐⭐1/2 ~गोविन्द परिहार  (20.03.25)

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